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प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॒ परि॒ ता ब॑भूव। यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ऽअस्तु व॒यꣳ स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥६५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रजा॑पत॒ इति॒ प्रजा॑ऽपते। न। त्वत्। ए॒तानि॑। अ॒न्यः। विश्वा॑। रू॒पाणि॑। परि॑। ता। ब॒भू॒व॒। यत्का॑मा॒ इति॒ यत्ऽका॑माः। ते॒। जु॒हु॒मः। तत्। नः॒। अ॒स्तु॒। व॒यम्। स्या॒म॒। पत॑यः। र॒यी॒णाम् ॥६५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:65


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रजापते) सब प्रजा के रक्षक स्वामिन् ईश्वर ! कोई भी (त्वत्) आप से (अन्यः) भिन्न (ता) उन (एतानि) इन पृथिव्यादि भूतों तथा (विश्वा) सब (रूपाणि) स्वरूपयुक्त वस्तुओं पर (न) नहीं (परि, बभूव) बलवान् है, (यत्कामाः) जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले होकर (वयम्) हम लोग आप की (जुहुमः) प्रशंसा करें (तत्) वह-वह कामना के योग्य वस्तु (नः) हम को (अस्तु) प्राप्त हो, (ते) आपकी कृपा से हम लोग (रयीणम्) विद्या, सुवर्ण आदि धनों के (पतयः) रक्षक स्वामी (स्याम) होवें ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - जो परमेश्वर से उत्तम, बड़ा, ऐश्वर्ययुक्त, सर्वशक्तिमान् पदार्थ कोई भी नहीं है तो उस के तुल्य भी कोई नहीं। जो सब का आत्मा, सब का रचनेवाला, समस्त ऐश्वर्य का दाता ईश्वर है, उसकी भक्तिविशेष और अपने पुरुषार्थ से इस लोक के ऐश्वर्य और योगाभ्यास के सेवन से परलोक के सामर्थ्य को हम लोग प्राप्त हों ॥६५ ॥ इस अध्याय में परमात्मा की महिमा, सृष्टि के गुण, योग-प्रशंसा, प्रश्नोत्तर, सृष्टि के पदार्थों की प्रशंसा, राजा प्रजा के गुण, शास्त्र आदि का उपदेश, पठन-पाठन, स्त्री पुरुषों के परस्पर गुण, फिर प्रश्नोत्तर, ईश्वर के गुण, यज्ञ की व्याख्या और रेखागणित आदि का वर्णन किया है, इससे इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये त्रयोविंशोऽध्यायः समाप्तः ॥२३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(प्रजापते) सर्वस्याः प्रजायाः पालक स्वामिन्नीश्वर ! (न) (त्वत्) तव सकाशात् (एतानि) पृथिव्यादीनि भूतानि (अन्यः) भिन्नः (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) स्वरूपयुक्तानि (परि) (ता) तानि (बभूव) भवति (यत्कामाः) यः पदार्थः कामो येषां (ते) तव (जुहुमः) प्रशंसामः (तत्) कमनीयं वस्तु (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) भवतु (वयम्) (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः पालकाः (रयीणाम्) विद्यासुवर्णादिधनानाम् ॥६५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजापते परमात्मन् ! कश्चित्त्वदन्यस्ता तान्येतानि विश्वा रूपाणि वस्तूनि न परि बभूव। यत्कामा वयं त्वां जुहुमस्तन्नोऽस्तु ते कृपया वयं रयीणां पतयः स्याम ॥६५ ॥
भावार्थभाषाः - यदि परमेश्वरादुत्तमं बृहदैश्वर्य्ययुक्तं सर्वशक्तिमद्वस्तु किंचिदपि नास्ति, तर्हि तुल्यमपि न। यो विश्वात्मा विश्वस्रष्टाऽखिलैश्वर्य्यप्रद ईश्वरोऽस्ति तस्यैव भक्तिविशेषेण पुरुषार्थेनैहिकमैश्वर्य्यं योगाभ्यासेन पारमार्थिकं सामर्थ्यं प्राप्नुयाम ॥६५ ॥ अत्र परमात्ममहिमा सृष्टिगुणवर्णनं योगप्रशंसा प्रश्नोत्तराणि सृष्टिपदार्थप्रशंसनं राजप्रजागुणवर्णनं शास्त्राद्युपदेशोऽध्ययनमध्यापनं स्त्रीपुरुषगुणवर्णनं पुनः प्रश्नोत्तराणि परमेश्वरगुणवर्णनं यज्ञव्याख्या रेखागणितादि चोक्तमत एतदर्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराहून उत्तम, मोठा, ऐश्वर्ययुक्त, सर्वशक्तिमान पदार्थ केणताही नाही, तर त्याच्याशी तुलना करावी असाही कुणी नाही. जो सर्वांचा आत्मा, सर्वांचा निर्माता व संपूर्ण ऐश्वर्याचा दाता असा तो एक ईश्वरच आहे. त्यासाठी त्याची विशेष रूपाने भक्ती करून पुरुषार्थाने इहलोकाचे ऐश्वर्य आम्हाला प्राप्त व्हावे आणि योगाभ्यासाने परलोकाचे सामर्थ्य प्राप्त व्हावे.